Tuesday, December 28, 2010

-: युगारम्भ :-


दसवीं कक्षा में हमनें यह कविता पड़ी थी । गिरिजाकुमार माथुर द्वारा रचित यह कविता मेरी मनपसन्द कविताओं में से है ।

ज्योति की तरंग उठी
दूर दूर छा गई,
सदियों की तिमिर पार
मानवता आ गई,


युग के विराट चरण
जनपथ पर गूँजते
धरती के स्वर महान्
अंबर को चूमते

पशुबल के दीपों की
रेख पड़ी झाँवरी
मिटी भयद कारा - सी
कालरात्रि साँवरी

मृत्यु के निदाघ पर
जीत गई ज़िदगी
तप्त, दग्ध, भूमि हुई
हरित पीत संदली ।

यह विकास पथ जमे
शिलाखंड घुल गए
तिमिर-घिरे जन-मन के
नए क्षितिज खुल गए

जीवन की गंगधार
कूल नया पा गई,
सदियों की तिमिर पार
मानवता छा गई

अविरल है मंज़िल यह
है न आखिरी विराम
इस प्रशस्त मार्ग चले
देश, देश, नगर ग्राम

मानव महान उठा
एक ज्योति ज्वार पर
उजले इतिहासों के
प्रथम सिंह-द्वार पर ।

अपने विरोधों से
श्रांत क्लांत था समाज
उन सहस्र पापों का
जलता है नरक आज

आदम का पुत्र बहुत
भटका अँधेरों में
चंगेज़ी न्यायों के
खून भरे घेरों में

किन्तु धरा मृत्युंजय
स्वर्ग नया पा गई
सदियों की तिमिर पार
मानवता आ गई ।